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धर्मचक्र.कॉम/ www.dharmchakra.com

Posted by गिरीश पाण्डेय Monday, October 11 0 comments


धर्मचक्र.कॉम/ www.dharmchakra.com
धर्म।
ज्योतिष। स्वास्थय

धर्म, मानव-जीवन का अहम हिस्सा है। वास्तव में धर्म संप्रदाय नहीं है। बल्कि जीवन में हम जो धारण करते हैं वही धर्म है। इस तरह से आप कह सकते हैं कि धर्म और जीवन एक दूसरे के पूरक हैं। धर्म, जीवन को एक दिशा, मार्गदर्शन और अनुशासन सिखाता है। धर्म हमें जीना सिखाता है। सनातन धर्म में इस बात पर विशेष जोर दिया गया है। धर्म के मार्ग पर चल कर आप जीवन के हर सुख को पा सकते हैं, स्वस्थ व निरोगी रह सकते हैं व मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं। धर्मचक्र.कॉम (www.dharmchakra.com) में धर्म और जीवन के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा करेंगे।

लेकिन धर्मचक्र ही क्यों ?

(Dharmchakra) धर्मचक्र, धर्मशिक्षा रूपी चक्र का प्रतीक है। ---- धर्मचक्र, धर्मशिक्षा रूपी चक्र का प्रतीक है। जिसे भगवान बुद्ध ने काशी के निकट सारनाथ में सबको धर्म की शिक्षा देने के लिए चलाया था। यह प्रगति और जीवन का प्रतीक भी है। महात्मा बुद्ध ने सारनाथ में जो प्रथम धर्मोपदेश दिया था, उसे धर्मचक्र प्रवर्तन भी कहा जाता है। बुद्ध ने बहुजनहिताय बहुजनसुखाय' का उपदेश दिया और इस प्रकार अपने धर्मचक्र को गति दी।

(Dharmchakra) धर्मचक्र प्रगति और जीवन का प्रतीक है। ---- धर्मचक्र को भारत के राष्ट्रीय ध्वज में बीच की सफेद पट्टी में रखा गया है। ये अशोक चक्र, मौर्य सम्राट अशोक के सारनाथ स्थित स्तंभ में उकेरा गया चक्र है। जिसमें 24 तीलियां हैं। प्रत्येक तीली एक अध्यात्मिक सिद्धांत का प्रतिनिधित्व करती है। इसे धर्मचक्र या जीवन और ब्रह्मांडीय व्यवस्था का चक्र कहा जाता है। इसका आशय यह है आगे बढते रहना ही गति है। जीवन गति‍शील है और रुकने का अर्थ मृत्‍यु है।

‘‘चक्र का अर्थ है गति। गति का सूत्र् चक्रध्वज के रूप में मूर्त हो रहा है। अतएव जब भारतीय राष्ट्र ने चक्रध्वज को अपना ध्वज स्वीकार किया, जो उसने गति तत्त्व को जीवन के रहस्य-रूप में स्वीकार किया। जीवन के रथ-चक्र के मार्ग को सदा मुखरित रखना ही गति है। यही चक्रध्वज का संदेश है।’’

(Dharmchakra) धर्मचक्र चेतना का शुद्धिकरण है। --- धर्मचक्र को विधि का चक्र माना जाता हैं। चक्र को धर्म, विकास, शक्ति एवं सृजन का प्रतीक कहा जाता है। विज्ञान ने हमें शक्ति, गति एवं ऊर्जा प्रदान की है। लक्ष्य हमें धर्म एवं दर्शन से प्राप्त करने हैं। धर्म ही ऐसा तत्व है जो मानव मन की असीम कामनाओं को सीमित करने की क्षमता रखता है। धर्म मानवीय दृष्टि को व्यापक बनाता है। धर्म मानव मन में उदारता, सहिष्णुता एवं प्रेम की भावना का विकास करता है। नैतिक मूल्यों का आचरण ही धर्म है। धर्म वह पवित्र अनुष्ठान है, जिससे चेतना का शुद्धिकरण होता है। धर्म वह तत्व है जिसके आचरण से व्यक्ति अपने जीवन को चरितार्थ कर पाता है।

(Dharmchakra) धर्मचक्र, सभी दुखों का निरोधक है। --- हमारे भीतर प्रति क्षण लोकचक्र चल रहा है। लोकचक्र मोह, मूढ़ता है। लोकचक्र अज्ञान, अविवेक, अविद्या है, जिसके कारण हम निरंतर राग और द्वेष की चक्की में पिसते रहते हैं। दोनों ही हमारे मन में तनाव-खिंचाव और उत्तेजना पैदा करते हैं। इससे समता नष्ट होती है। विषमता आरंभ होती है। दुख संधि होती है। दुख आरंभ होता है। यही लोकचक्र का आरंभ हो जाना है। इसी भवचक्र को काटने के लिए हमारे भीतर धर्मचक्र जागते रहना बहुत आवश्यक है। यदि धर्मचक्र जागता है तो विवेक, विद्या और होश जागता है। लोकचक्र से छुटकारा पाना है तो, धर्मचक्र प्रवर्तित करना होगा। लोकचक्र हमारे समस्त दुखों का मूल है। धर्मचक्र सभी दुखों का निरोधक है। धर्मचक्र प्रवर्तित रखने में हमारा मंगल-कल्याण है।


(Dharmchakra) धर्मचक्र, सभी सभी समस्याओं का समाधान है। --- परिवर्तन सृष्टि का नियम है। नए युग को नए जीवन-मूल्य चाहिए। संसार को अब ऐसे धर्म-दर्शन की आवश्यकता है जो व्यक्ति को सुख प्रदान कर सके; उसे शांति दे सके; उसकी मनोवैज्ञानिक, सामाजिक एवं राजनैतिक समस्याओं का समाधान कर सके। धर्मतंत्र में प्रचण्ड शक्ति -सामर्थ्य छिपी पड़ी है | धर्म का प्रादुर्भाव ही प्रजा की, समाज की रक्षा के लिए हुआ है धर्म का अर्थ है -आस्तिकता -संवेदना का जागरण। धर्म मनुष्य के अंतरंग को स्पर्श कर उनके अन्दर की छिपी महानता को जगाता है | यह कार्य बहिरंग अनुशासन, सरकारी कानून या प्रचलित शिक्षा पद्धति से संभव नहीं है। आपके लोगों के सहयोग, मार्गदर्शन व सहयोग से (www.Dharmchakra.com) धर्मचक्र.कॉम इस काम में लोगों के लिए मददगार सिद्ध होगा।

Why www.dharmchakra.com ?

Dharmchakra is a Sanskrit word which means 'Wheel of Truth or Law'. Dharm is a way of life. Dharm is a science and psychology to which helps you to live wonderful life.

The Dharmchakra symbolize Buddha’s eightfold path that leads to enlightenment, or the eight tenets of Buddhist belief namely, right faith, right intention, right speech, right action, right livelihood, right endeavor, right mindfulness and right meditation. There are 3 swirling segments in the middle of the wheel which represent Buddha, Dharma and Sangha. The Dharmchakra can also be divided into three parts. The rim is meant for concentration, the spokes for wisdom and the hub for discipline. The circle indicates the completeness of the Dharma (law). The Dharmchakra signifies overcoming of obstacles. The first teaching of Buddha at the Deer Park in Sarnath is known as Dharmchakra Parivartan (change) where he started a new cycle of teaching. Buddha is known as the Wheel-Turner.

We hope that www.dharmchakra.com will help you to bring good change in your life. This will prove as one of the best website on Indian (Bhartiya) religions, culture and Life.

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भारत में बनेगा, रावण का भव्य मंदिर

Posted by गिरीश पाण्डेय Saturday, October 9 0 comments


भारत में बनेगा, रावण का भव्य मंदिर

रावण की जिंदगी के सकारात्मक पहलुओं को उजागर करने का का बीड़ा, कौशिकेश्वर ज्योर्तिलिंग रावण मंदिर एवं अनुसंधान समिति ने उठाया है। समिति के अध्यक्ष अनिल कौशिक कहते हैं कि कि रावण की अच्छाइयों को समाज के सामने लाया ही नहीं गया। रावण प्रकांड पंडित और महान शिव भक्त था। वह अलौकिक शक्तियों का स्वामी भी था। उसकी मौत के समय खुद भगवान राम ने लक्ष्मण को उससे शिक्षा लेने के लिए भेजा था।

हस्तिनापुर का इलाका रावण से सम्बन्धित रहा है। गाजियाबाद शहर से करीब 15 किलोमीटर दूर गांव बिसरख को रावण का ननिहाल और जन्मस्थान कहा जाता है। कहा जाता है कि यहां रिषि विश्रवा का आश्रम था। उन्होंने ऋषि भारद्वाज की पुत्री से विवाह किया था। जिससे उन्हें कुबेर पैदा हुए। दूसरी पत्नी मैकसी से रावण, कुंभकरण, विभीषण और सूर्पणखा पैदा हुई थी। रावण के पिता विश्रवा ऋषि ने यहां दूधेश्वरनाथ मंदिर में कठोर तपस्या की थी।

रावण मंदिर समिति के अध्यक्ष अनिल कौशिक ने कहा कि अब रावण के गुणों को लोगों के बीच लाया जाएगा। इस काम के लिए रावण की ससुराल मेरठ को चुना है। मय नामक दानव के नाम पर पहले इस जगह का नाम मयराष्ट्र था। मय की पुत्री मंदोदरी से रावण का विवाह हुआ था। मेरठ जिले की सरधना तहसील में भव्य रावण मंदिर का निर्माण करने के लिए भूमि पूजन किया जा चुका है। मंदिर में नर्मदेश्वर के ज्योतिर्लिंग के साथ रावण की 10 सिर वाली प्रतिमा, मंदोदरी और भगवान शिव की मूर्ति स्थापित की जाएगी।

श्री कौशिक ने बताया कि रावण का दूसरा मंदिर उसके जन्मस्थल गौतमबुद्ध नगर के गांव बिसरख मे बनाया जाएगा। यह मंदिर रावण जन्म मंदिर के नाम से जाना जाएगा। तीसरा मंदिर झारखंड स्थित बाबा बैद्यनाथ धाम में बनाने की योजना है। यहां कैला पर्वत से लाए गए शिवलिंग को देवताओं ने रावण से छल कर स्थापित किया था। कौशिक का कहना है कि वे दशहरे पर रावण दहन के भी विरोधी है। दरअसल रावण का दाह संस्कार हुआ ही नहीं था। ऐसे में एक ब्राह्मण का हर साल दाह संस्कार शास्त्र सम्मत नहीं है।

Gireesh Pandey for www.dharmchakra.com

धर्मचक्र के लिए गिरीश पाण्डेय

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राक्षसराज रावण की पूजा

Posted by गिरीश पाण्डेय 0 comments

राक्षसराज रावण की पूजा

वो रावण का पुतला नहीं जलाते। वो रावण-दहन पर शोक मनाते हैं। वो, दशहरे पर रावण की पूजा करते हैं। इतिहास के सबसे बड़े राक्षस की पूजा....लेकिन क्यों ? कौन हैं ये लोग ? क्यों करते हैं ये रावण की पूजा ? क्या है इसका रहस्य ? – पर्दा उठा रहे हैं, धर्मचक्र संवाददाता – गिरीश पाण्डेय।

Why they worship Ravana? Who are they? And why don’t they Fire Ravan’s effigy? A report By Dharmchakra Correspondent- Gireesh Pandey


धर्मचक्र.कॉम डेस्क। मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान श्रीराम, भारतीय संस्कृति और सभ्यता के महापुरुष हैं। भारत के साथ-साथ इंडोनेशिया, मलेशिया, श्रीलंका, चीन और थाइलैंड के अलावा दूनिया के दूसरे देशों में भी भगवान राम की पूजा की जाती है। कहीं रामायण काकावीन तो कहीं रामकियेन..अलग-अलग नामों से उनके गाथा व लीला, पढ़ी और खेली जाती है। ये लोग आज भी भगवान राम को सतयुग का सबसे बड़ा नायक मानते हैं।

दुनिया भर के सनातन धर्म के अनुयायी दशहरे यानि विजयादशमी के दिन भगवान राम की पूजा और रावण दहन जरुर करते हैं। श्री राम के बाद लंकापति रावण, रामायण के सबसे प्रमुख पात्र है। रावण को बुराई और अहंकार का प्रतीक माना जाता है। और हर साल दशहरे पर रावण का पुतला जलाया जाता है। लेकिन रावण के समर्थकों की संख्या भी कोई कम नहीं है। ये लोग रावण का पुतला नहीं जलाते हैं। बल्कि शोक मनाते हैं और राक्षस राज की पूजा करते हैं। क्या ये लोग बुराई के प्रतीक की पूजा करते हैं...क्या ये लोग बुराई के समर्थक है?

नहीं बिल्कुल भी नहीं। बल्कि सबसे बड़ा सच तो ये है कि लंकापति रावण, राक्षसराज होने के साथ-साथ भगवान शिव के परमभक्त, प्रगाढ़ पंडित और पराक्रमी योद्धा थे। ये तो सब जानते हैं कि रावण ब्राह्मण कुल का था और महाज्ञानी व तपस्वी व्यक्ति था। कई ब्राह्मण आज भी खुद को उनका वंशज मानते हैं। और उनकी पूजा करते हैं।

आइये मिलते हैं ऐसे लोगों से ---

कुछ समय पहले झारखंड के पूर्व-मुख्यमंत्री शिबुसोरेन ने रावण के पुतले का दहन करने से यह कहते हुए इंकार कर दिया था कि यह राक्षसराज उनके कुलगुरु हैं। जिसके बाद राजनीतिक विवाद भी पैदा हो गया। झारखंड के गठन के बाद से ही राज्य के मुख्यमंत्री रावण का पुतला दहन करते रहे हैं। देश में सोरेन अकेले व्यक्ति नहीं हैं जो रावण का सम्मान करते हैं।

गुरु-वैदिक संस्कार केन्द्र, दिल्ली के पीठाधीश आचार्य कमल शर्मा बताते हैं कि रावण बड़ा ही विद्वान ब्राह्मण था। वह तो उसका अहम और हठ उसको ले डूबा। लेकिन फिर भी उसके पांडित्य का आदर तो करना ही चाहिए। रावण ही शिव तांडव स्त्रोत और रावण संहिता के रचयिता हैं। रावण संहिता ज्योतिष का प्रमुख अंग है। रावण के बिना शिव की भक्ति और ज्योतिष दोनों पूरे नहीं हो सकते।

अखिल भारतीय विद्वत परिषद के संयोजक डा. कामेश्वर उपाध्याय कहते हैं कि रावण न सिर्फ विद्वान और वेदों का ज्ञाता था, बल्कि उसके राज में विज्ञान काफी उन्नत था और उसने स्वर्ग तक सीढी बनाने की योजना बनाई थी। उन्होंने बताया कि ग्रंथों में रावण पूजन का उल्लेख नहीं है, लेकिन दक्षिण भारत श्रीलंका और राजस्थान में रावण के कुछ वंशज उनका पूजन करते हैं।

मध्य प्रदेश के दमोह नगर का नागदेव परिवार आज भी लंका नरेश रावण को अपना ईष्ट मानता है। परिवार के सदस्य हरीश नागदेव पूरे दमोह नगर में लंकेश के नाम से मशहूर है। वह अपने पूरे परिवार के साथ प्रतिदिन अपने ईष्ट दशानन की पूजा विधि विधान से करते है। दशहरा पर दामोह का नागदेव परिवार समूचे उल्लास के साथ शहर के घंटाघर पर रावण के स्वरुप की आरती उतारकर मंगल कामना करता है। नागदेव परिवार ने विशाल लंकेश मंदिर बनाने की वृहद योजना तैयार की है और शासन से जमीन की भी मांग की है।

इंदौर के परदेशी पुरा का वाल्मीकि समाज न सिर्फ लंकापति की पूजा अर्चना करता है बल्कि दशहरा के त्यौहार पर रावण दहन का दृश्य देखने से भी परहेज करता है। इंदौर का लंकेश मित्र मंडल भी पिछले चालीस बरसों से शहर में विजयादशमी पर रावण की पूजा अर्चना के जरिए राक्षसराज का पुतला जलाने की परंपरा का विरोध कर रहा है। और हर साल विजयादशमी पर रावण की पूजा अर्चना करते हैं।

महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में दशहरा का त्यौहार मनाया जाता है और रावण का पुतला दहन होता है। लेकिन महाराष्ट्र के ही आदिवासी बहुल मेलघाट [अमरावती जिला] और धरोरा [गढचिरौली जिला] के कुछ गांवों में रावण और उसके पुत्र मेघनाद की पूजा होती है। यह परंपरा विशेष तौर पर कोर्कू और गोंड आदिवासियों में प्रचलित है जो रावण को विद्वान व्यक्ति मानते हैं और पीढियों से वे इस परंपरा का निर्वाह कर रहे हैं। हर साल होली के त्यौहार के समय यह समुदाय फागुन मनाता है, जिसमें कुर्कू आदिवासी रावण पुत्र मेघनाद की पूजा करते हैं।

मध्य प्रदेश में विदिशा के हजारों कान्यकुब्ज ब्राहमण रावण मंदिर में पूजा करते हैं। कई क्षेत्रों में दशहरे पर रावण का श्राद्घ भी किया जाता है। उत्तर प्रदेश में कानपुर के निकट भी एक रावण मंदिर है, जो दशहरे के मौके पर साल में एक दिन के लिए खुलता है।

कर्नाटक के कोलार जिले में भी लोग फसल महोत्सव के दौरान रावण की पूजा करते हैं और इस मौके पर जुलूस निकाला जाता है। ये लोग रावण की पूजा इसलिए करते हैं क्योंकि वह भगवान शिव का भक्त था। लंकेश्वर महोत्सव में भगवान शिव के साथ रावण की प्रतिमा भी जुलूस की शोभा बढाती है। इसी राज्य के मंडया जिले के मालवल्ली तालुका में रावण को समर्पित एक मंदिर भी है।

कथाओं के अनुसार रावण ने आंध्र प्रदेश के काकिनाड में एक शिवलिंग की स्थापना की थी और इसी शिवलिंग के निकट रावण की भी प्रतिमा स्थापित है। यहां शिव और रावण दोनों की पूजा मछुआरा समुदाय करता है। रावण को लंका का राजा माना जाता है और श्रीलंका में कहा जाता है कि राजा वलगम्बाने इला घाटी में रावण के नाम पर गुफामंदिर का निर्माण कराया था।

उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में कटरा का रामलीला शुरु होने पर पहले दिन हर साल रावण जुलूस निकाला जाता है और स्थानीय निवासियों का दावा है कि यह परंपरा पांच सौ साल पुरानी है।

रावण जलाया तो मृत्यु निश्चित

हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में शिवनगरी के नाम से मशहूर बैजनाथ कस्बा है। यहां के लोग कहते हैं कि रावण का पुतला जलाना तो दूर सोचना भी महापाप है। यदि इस क्षेत्र में रावण का पुतला जलाया गया तो मृत्यु निश्चित है। मान्यता के अनुसार रावण ने कुछ वर्ष बैजनाथ में भगवान शिव की तपस्या कर मोक्ष का वरदान प्राप्त किया था। शिव के सामने उनके परमभक्त के पुतले को जलाना उचित नहीं था और ऐसा करने पर दंड तत्काल मिलता था, लिहाजा रावणदहन यहां नहीं होता। 1967 में बैजनाथ में एक कीर्तन मंडली ने क्षेत्र में दशहरा मनाने का निर्णय लिया। 1967 में दशहरे की परंपरा शुरू होने के एक साल के भीतर यहां इस उत्सव को मनाने में मुख्य भूमिका निभाने वाले व रावण के पुतले को आग लगाने वालों की या तो मौत होने लगी या उनके घरों में भारी तबाही हुई। यह सिलसिला 1973 तक चलता रहा। 1973 में तो बैजनाथ में प्रकृति ने भी कहर बरपाया तथा पूरे क्षेत्र में फसलों को बर्बाद कर दिया। इन घटनाओं को देखते हुए बैजनाथ में दशहरा मनाना बंद कर दिया गया।

बैजनाथ में बिनवा पुल के पास रावण का मंदिर है जिसमें शिवलिंग व उसी के पास, एक बड़े पैर का निशान है। ऐसा माना जाता है कि रावण ने इसी स्थान पर एक पैर पर खड़े होकर तपस्या की थी। इसके बाद शिव मंदिर के पूर्वी द्वार में खुदाई के दौरान एक हवन कुंड भी निकला था। इस कुंड के समक्ष रावण ने हवन कर अपने नौ सिरों की आहुति दी थी।

धर्मचक्र.कॉम के लिए गिरीश पाण्डेय
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जय शिव शंकर

जय शिव शंकर
सृष्टिकर्ता, दुखहर्ता, पालनकर्ता

क्या आपको लगता है कि धार्मिक स्थलों पर धर्म के नाम पर लूट-खसोट होती है?

परिचय

वैसे तो आठ साल से पत्रकारिता की दुनिया में हैं। अचानक धार्मिक कार्यक्रम बनाने का अवसर मिला। बचपन से ही धर्म के वैज्ञानिक,सामाजिक और व्यवहारिक पहलूओं को समझने का प्रयास कर रहा हूं। धर्मचक्र में धर्म और जीवन से जुड़े सभी बिन्दुओं पर चर्चा करने का प्रयास किया जायेगा। ताकि आपको आद्यात्मिक तृप्ति हो और धर्म से जुड़े सच्चे और झूठे पक्षों को समझने का मौका मिले।