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राक्षसराज रावण की पूजा

Posted by गिरीश पाण्डेय Saturday, October 9

राक्षसराज रावण की पूजा

वो रावण का पुतला नहीं जलाते। वो रावण-दहन पर शोक मनाते हैं। वो, दशहरे पर रावण की पूजा करते हैं। इतिहास के सबसे बड़े राक्षस की पूजा....लेकिन क्यों ? कौन हैं ये लोग ? क्यों करते हैं ये रावण की पूजा ? क्या है इसका रहस्य ? – पर्दा उठा रहे हैं, धर्मचक्र संवाददाता – गिरीश पाण्डेय।

Why they worship Ravana? Who are they? And why don’t they Fire Ravan’s effigy? A report By Dharmchakra Correspondent- Gireesh Pandey


धर्मचक्र.कॉम डेस्क। मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान श्रीराम, भारतीय संस्कृति और सभ्यता के महापुरुष हैं। भारत के साथ-साथ इंडोनेशिया, मलेशिया, श्रीलंका, चीन और थाइलैंड के अलावा दूनिया के दूसरे देशों में भी भगवान राम की पूजा की जाती है। कहीं रामायण काकावीन तो कहीं रामकियेन..अलग-अलग नामों से उनके गाथा व लीला, पढ़ी और खेली जाती है। ये लोग आज भी भगवान राम को सतयुग का सबसे बड़ा नायक मानते हैं।

दुनिया भर के सनातन धर्म के अनुयायी दशहरे यानि विजयादशमी के दिन भगवान राम की पूजा और रावण दहन जरुर करते हैं। श्री राम के बाद लंकापति रावण, रामायण के सबसे प्रमुख पात्र है। रावण को बुराई और अहंकार का प्रतीक माना जाता है। और हर साल दशहरे पर रावण का पुतला जलाया जाता है। लेकिन रावण के समर्थकों की संख्या भी कोई कम नहीं है। ये लोग रावण का पुतला नहीं जलाते हैं। बल्कि शोक मनाते हैं और राक्षस राज की पूजा करते हैं। क्या ये लोग बुराई के प्रतीक की पूजा करते हैं...क्या ये लोग बुराई के समर्थक है?

नहीं बिल्कुल भी नहीं। बल्कि सबसे बड़ा सच तो ये है कि लंकापति रावण, राक्षसराज होने के साथ-साथ भगवान शिव के परमभक्त, प्रगाढ़ पंडित और पराक्रमी योद्धा थे। ये तो सब जानते हैं कि रावण ब्राह्मण कुल का था और महाज्ञानी व तपस्वी व्यक्ति था। कई ब्राह्मण आज भी खुद को उनका वंशज मानते हैं। और उनकी पूजा करते हैं।

आइये मिलते हैं ऐसे लोगों से ---

कुछ समय पहले झारखंड के पूर्व-मुख्यमंत्री शिबुसोरेन ने रावण के पुतले का दहन करने से यह कहते हुए इंकार कर दिया था कि यह राक्षसराज उनके कुलगुरु हैं। जिसके बाद राजनीतिक विवाद भी पैदा हो गया। झारखंड के गठन के बाद से ही राज्य के मुख्यमंत्री रावण का पुतला दहन करते रहे हैं। देश में सोरेन अकेले व्यक्ति नहीं हैं जो रावण का सम्मान करते हैं।

गुरु-वैदिक संस्कार केन्द्र, दिल्ली के पीठाधीश आचार्य कमल शर्मा बताते हैं कि रावण बड़ा ही विद्वान ब्राह्मण था। वह तो उसका अहम और हठ उसको ले डूबा। लेकिन फिर भी उसके पांडित्य का आदर तो करना ही चाहिए। रावण ही शिव तांडव स्त्रोत और रावण संहिता के रचयिता हैं। रावण संहिता ज्योतिष का प्रमुख अंग है। रावण के बिना शिव की भक्ति और ज्योतिष दोनों पूरे नहीं हो सकते।

अखिल भारतीय विद्वत परिषद के संयोजक डा. कामेश्वर उपाध्याय कहते हैं कि रावण न सिर्फ विद्वान और वेदों का ज्ञाता था, बल्कि उसके राज में विज्ञान काफी उन्नत था और उसने स्वर्ग तक सीढी बनाने की योजना बनाई थी। उन्होंने बताया कि ग्रंथों में रावण पूजन का उल्लेख नहीं है, लेकिन दक्षिण भारत श्रीलंका और राजस्थान में रावण के कुछ वंशज उनका पूजन करते हैं।

मध्य प्रदेश के दमोह नगर का नागदेव परिवार आज भी लंका नरेश रावण को अपना ईष्ट मानता है। परिवार के सदस्य हरीश नागदेव पूरे दमोह नगर में लंकेश के नाम से मशहूर है। वह अपने पूरे परिवार के साथ प्रतिदिन अपने ईष्ट दशानन की पूजा विधि विधान से करते है। दशहरा पर दामोह का नागदेव परिवार समूचे उल्लास के साथ शहर के घंटाघर पर रावण के स्वरुप की आरती उतारकर मंगल कामना करता है। नागदेव परिवार ने विशाल लंकेश मंदिर बनाने की वृहद योजना तैयार की है और शासन से जमीन की भी मांग की है।

इंदौर के परदेशी पुरा का वाल्मीकि समाज न सिर्फ लंकापति की पूजा अर्चना करता है बल्कि दशहरा के त्यौहार पर रावण दहन का दृश्य देखने से भी परहेज करता है। इंदौर का लंकेश मित्र मंडल भी पिछले चालीस बरसों से शहर में विजयादशमी पर रावण की पूजा अर्चना के जरिए राक्षसराज का पुतला जलाने की परंपरा का विरोध कर रहा है। और हर साल विजयादशमी पर रावण की पूजा अर्चना करते हैं।

महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में दशहरा का त्यौहार मनाया जाता है और रावण का पुतला दहन होता है। लेकिन महाराष्ट्र के ही आदिवासी बहुल मेलघाट [अमरावती जिला] और धरोरा [गढचिरौली जिला] के कुछ गांवों में रावण और उसके पुत्र मेघनाद की पूजा होती है। यह परंपरा विशेष तौर पर कोर्कू और गोंड आदिवासियों में प्रचलित है जो रावण को विद्वान व्यक्ति मानते हैं और पीढियों से वे इस परंपरा का निर्वाह कर रहे हैं। हर साल होली के त्यौहार के समय यह समुदाय फागुन मनाता है, जिसमें कुर्कू आदिवासी रावण पुत्र मेघनाद की पूजा करते हैं।

मध्य प्रदेश में विदिशा के हजारों कान्यकुब्ज ब्राहमण रावण मंदिर में पूजा करते हैं। कई क्षेत्रों में दशहरे पर रावण का श्राद्घ भी किया जाता है। उत्तर प्रदेश में कानपुर के निकट भी एक रावण मंदिर है, जो दशहरे के मौके पर साल में एक दिन के लिए खुलता है।

कर्नाटक के कोलार जिले में भी लोग फसल महोत्सव के दौरान रावण की पूजा करते हैं और इस मौके पर जुलूस निकाला जाता है। ये लोग रावण की पूजा इसलिए करते हैं क्योंकि वह भगवान शिव का भक्त था। लंकेश्वर महोत्सव में भगवान शिव के साथ रावण की प्रतिमा भी जुलूस की शोभा बढाती है। इसी राज्य के मंडया जिले के मालवल्ली तालुका में रावण को समर्पित एक मंदिर भी है।

कथाओं के अनुसार रावण ने आंध्र प्रदेश के काकिनाड में एक शिवलिंग की स्थापना की थी और इसी शिवलिंग के निकट रावण की भी प्रतिमा स्थापित है। यहां शिव और रावण दोनों की पूजा मछुआरा समुदाय करता है। रावण को लंका का राजा माना जाता है और श्रीलंका में कहा जाता है कि राजा वलगम्बाने इला घाटी में रावण के नाम पर गुफामंदिर का निर्माण कराया था।

उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में कटरा का रामलीला शुरु होने पर पहले दिन हर साल रावण जुलूस निकाला जाता है और स्थानीय निवासियों का दावा है कि यह परंपरा पांच सौ साल पुरानी है।

रावण जलाया तो मृत्यु निश्चित

हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में शिवनगरी के नाम से मशहूर बैजनाथ कस्बा है। यहां के लोग कहते हैं कि रावण का पुतला जलाना तो दूर सोचना भी महापाप है। यदि इस क्षेत्र में रावण का पुतला जलाया गया तो मृत्यु निश्चित है। मान्यता के अनुसार रावण ने कुछ वर्ष बैजनाथ में भगवान शिव की तपस्या कर मोक्ष का वरदान प्राप्त किया था। शिव के सामने उनके परमभक्त के पुतले को जलाना उचित नहीं था और ऐसा करने पर दंड तत्काल मिलता था, लिहाजा रावणदहन यहां नहीं होता। 1967 में बैजनाथ में एक कीर्तन मंडली ने क्षेत्र में दशहरा मनाने का निर्णय लिया। 1967 में दशहरे की परंपरा शुरू होने के एक साल के भीतर यहां इस उत्सव को मनाने में मुख्य भूमिका निभाने वाले व रावण के पुतले को आग लगाने वालों की या तो मौत होने लगी या उनके घरों में भारी तबाही हुई। यह सिलसिला 1973 तक चलता रहा। 1973 में तो बैजनाथ में प्रकृति ने भी कहर बरपाया तथा पूरे क्षेत्र में फसलों को बर्बाद कर दिया। इन घटनाओं को देखते हुए बैजनाथ में दशहरा मनाना बंद कर दिया गया।

बैजनाथ में बिनवा पुल के पास रावण का मंदिर है जिसमें शिवलिंग व उसी के पास, एक बड़े पैर का निशान है। ऐसा माना जाता है कि रावण ने इसी स्थान पर एक पैर पर खड़े होकर तपस्या की थी। इसके बाद शिव मंदिर के पूर्वी द्वार में खुदाई के दौरान एक हवन कुंड भी निकला था। इस कुंड के समक्ष रावण ने हवन कर अपने नौ सिरों की आहुति दी थी।

धर्मचक्र.कॉम के लिए गिरीश पाण्डेय
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जय शिव शंकर

जय शिव शंकर
सृष्टिकर्ता, दुखहर्ता, पालनकर्ता

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परिचय

वैसे तो आठ साल से पत्रकारिता की दुनिया में हैं। अचानक धार्मिक कार्यक्रम बनाने का अवसर मिला। बचपन से ही धर्म के वैज्ञानिक,सामाजिक और व्यवहारिक पहलूओं को समझने का प्रयास कर रहा हूं। धर्मचक्र में धर्म और जीवन से जुड़े सभी बिन्दुओं पर चर्चा करने का प्रयास किया जायेगा। ताकि आपको आद्यात्मिक तृप्ति हो और धर्म से जुड़े सच्चे और झूठे पक्षों को समझने का मौका मिले।